काष्ठमण्डप, नेपाल
विक्रमसं. २०८० चैत्र १४ – १६ तदनुसार २७–२९ मार्च २०२४
सम्मेलन-प्रतिवेदन
पृष्ठभूमि
वि. सं. २०८० चैत्र १४ – १६ तदनुसार २७–२९ मार्च २०२४ को, नेपाल के संस्कृत विद्वानों की सक्रिय उपस्थिति में पार्क विलेज रिसोर्ट, बुढानीलकण्ठ, काठमांडू, नेपाल में तीन दिवसीय नेपाल–भारत अंतर्राष्ट्रीय संस्कृत सम्मेलन आयोजित किया गया था । नेपाल–भारत संस्कृत सम्मेलन का आयोजन नीति अनुसन्धान प्रतिष्ठान नेपाल (नेनाप), इंडिया फाउंडेशन, दिल्ली और केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली द्वारा किया गया था। सम्मेलन को तीन दिनों में क्रमशः तीन मुख्य विषयों, उद्घाटन सत्र, चर्चा सत्र और समापन सत्र में विभाजित किया गया था। इस संक्षिप्त प्रतिवेदन में अत्यंत भव्य, सभ्य और गरिमामय तीन दिवसीय संस्कृत सम्मेलन के संबंध में एक संक्षिप्त सर्वेक्षण और वर्णनात्मक परिचय प्रस्तुत किया गया है।
अंतर्राष्ट्रीय नेपाल–भारत संस्कृत सम्मेलन का उद्घाटन सत्र
सम्मेलन का पहला दिन वि.सं. १४ चैत्र २०८० तदनुसार २६ मार्च २०२४ को बुढानीलकण्ठ, काठमांडू में आयोजित संस्कृत सम्मेलन का उद्घाटन समारोह संपन्न हुआ । समारोह के मंच पर नीति अनुसन्धान प्रतिष्ठान, नेपाल (नेनाप) के कार्यकारी निदेशक डॉ. श्री केशवराज पन्थी जी उपस्थित थे, जबकि नेपाल सरकार के ऊर्जा, जलस्रोत और सिंचाई मंत्री माननीय श्री शक्ति बहादुर बस्नेत मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। इसी प्रकार विशिष्ट अतिथियों एवं वक्ताओं में कुलपति प्रो. श्रीनिवास वरखेड़ी (केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली), कुलपति प्रो. यादव प्रकाश लामिछाने (नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय) प्रो. शशिप्रभा कुमार (अध्यक्ष, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला) वक्ता श्री दिनेश कामत (अखिल भारतीय संगठन मंत्री, संस्कृत भारती), प्रो. काशीनाथ न्यौपाने (चेयर प्रोफेसर, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली) अतिथि के रूप में मञ्चासीन रहे।
आयोजक संस्थाओं की ओर से डा. दीपक कुमार अधिकारी, निदेशक, नीति अनुसन्धान प्रतिष्ठान नेपाल (नेनाप) ने सभी का गर्मजोशी से स्वागत किया । उन्होंने स्पष्ट किया कि यह महत्त्वपूर्ण है कि नेपाल और भारत दोनों ही संस्कृत के भी मातृदेश हैं और आयुर्वेद के भी मातृदेश हैं । स्वागत भाषण के दौरान, उन्होंने भारत से पाशुपत क्षेत्र में आए संस्कृत के विद्वानों का स्वागत किया और उन्हें बताया कि यह अनुष्ठान बुढानीलकण्ठ के आसपास शुरू हो गया है और यह पशुपतिनाथ के दर्शन के बाद पूरा होगा ।
प्रो. काशीनाथ न्यौपाने जी ने अपना बीजभाषण देते हुए कहा कि भारत नेपाल का तीर्थस्थल और नेपाल भारत का तीर्थस्थल हैं । भौगोलिक सीमा और राजनीतिक रूप से अलग–अलग देश हैं परन्तु संस्कृत और संस्कृति की दृष्टि से वे एक अभिन्न देश हैं । उनका विचार था कि नेपाल और भारत के बीच सहयोग अपरिहार्य है । उन्होंने सम्मेलन के विषय पर भी जानकारी दी और बताया कि तीन दिवसीय मंथन क्यों और किसलिए है ।
अपने शुभकामना मन्तव्य के दौरान प्रो. शशिप्रभा कुमार ने कहा कि भगवान बुद्ध और माता जानकी की जन्मस्थली नेपाल भारत के लिए भी तीर्थस्थल है, उन्होंने कहा कि भारत के साथ सांस्कृतिक संबंधों में नेपाल के ५ विशिष्टताएँ हैं ।
- वैदिक संस्कृति को पर्वतों के राजा हिमालय (अस्त्युतरस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः) द्वारा संरक्षित किया गया है और माउंट एवरेस्ट, जिसे उतुंग कहा जाता है, नेपाल में स्थित है ।
- दूसरी महत्त्वपूर्ण कड़ी बौद्ध धर्म की जन्मस्थली नेपाल है । विश्व के ज्ञान के प्रकाश भगवान गौतम बुद्ध की जन्मस्थली होने के कारण नेपाल भारत के लिए तीर्थस्थल बन गया है ।
- विक्रम संवत नेपाल और भारत के संबंधों का भी सूत्र बन गया है । विश्व में केवल नेपाल और भारत ही लोकप्रिय हैं कि दोनों देशों में कालक्रम, ज्योतिष आदि एक समान हैं ।
- विभिन्न त्यौहार, उत्सव और परंपराएँ नेपाल और भारत के बीच संबंधों के सूत्र भी हैं । दोनों देशों के सांस्कृतिक उत्सव एक जैसे हैं । दोनों देशों में रीति–रिवाज, पहनावा, रहन–सहन में एकरूपता या समानता है । गुरुपूर्णिमा, रक्षाबंधन, होली उत्सव, दिवाली उत्सव, नवदुर्गा उत्सव, श्रीपंचमी, नववर्ष, शिवरात्रि, छठ उत्सव, रामनवमी आदि दोनों देशों में समानरूप से मनाए जाते हैं ।
- इसी प्रकार दोनों देशों के ध्येय वाक्यों में भी समानता है । नेपाल का आदर्श वाक्य जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी है, जबकि भारत का आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते नानृतम् है । चूंकि नेपाल और भारत दोनों वसुधैव कुटुंबकम् को अपनाकर आगे बढ़े हैं, इसलिए हमारे बीच एक सांस्कृतिक एकता है । इस प्रकार पाँच संबंध सूत्रों का प्रतिपादन करते हुए प्रो. शशिप्रभा कुमार जी का विचार था कि नेपाल और भारत सांस्कृतिक दृष्टि से सदैव अविभाज्य रहेंगे ।
वहीं, समारोह के विशिष्ट अतिथि एवं नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. यादव प्रकाश लामिछाने ने शुभकामना मन्तव्य देते हुए संस्कृत के महत्त्व और उपयोगिता को बताया और कहा कि संस्कृत नेपाल और भारत की साझा संपत्ति है, इसलिए दोनों देशों को संस्कृत के प्रचार और प्रसार के लिए अध्ययन और अनुसंधान पर जोर देना चाहिए ।
समारोह के मुख्यवक्ता प्रो. श्रीनिवास वरखेड़ी (कुलाधिपति केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली) ने मन्तव्य के क्रम में कहा कि नेपाल और भारत दो शरीर लेकिन एक आत्मा वाले देश हैं, भारत का विकास करते समय नेपाल का भी विकास करना आवश्यक है, विकास की जड़ शिक्षा है, हम सक्षम हैं संस्कृत के उत्थान के लिए । और यदि हम पौरस्त्य शिक्षा प्रणाली को अपनाकर आगे बढ़ सकें, तो हमारे दोनों देश समृद्ध होंगे और दो साल के भीतर नेपाल और भारत दोनों एकत्र होकर शिक्षाका नेतृत्व लेंगे ।
नेपाल को वैदिक धर्म और बौद्ध धर्म का उद्गम स्थल मानते हुए, नेपाल सदैव एक शाश्वत राष्ट्र के रूप में एक अजेय स्वतंत्र राष्ट्र रहा है, सीता की जन्मभूमि नेपाल मर्यादा और अनुशासन का सम्मान करने वाला देश है, संस्कृत न केवल एक प्राचीन भाषा है बल्कि संस्कृत नेपाल और भारत का भविष्य है । नयाँ पाठ्यक्रम बनाया जाए । संस्कृत में लघु वीडियो बनाना चाहिए । उन्होंने सामाजिक अभियान चलाने जैसे महत्त्वपूर्ण सुझाव भी दिये ।
समारोह के विशिष्ट अतिथि एवं संस्कृत भारती के अखिल भारतीय संगठन मंत्री श्री दिनेश कामत जी ने अपना उद्बोधन के क्रम में नेपाल को देवभूमि बताते हुए कहा कि नेपाल भगवान विष्णु की रचना अर्थात अमूल्य प्रतिमा की भूमि है । विष्णु का आभूषण शालग्राम शिला नेपाल (कृष्णगंडकी) में पाया जा सकता है, भगवान् शिव का रत्न रुद्राक्ष नेपाल में पाया जाता है । नेपाल और भारत सांस्कृतिक रूप से एक दूसरे पर निर्भर या अभिन्न देश हैं, एक ही संस्कृति है । उन्होंने उपस्थित सभी लोगों से प्रतिदिन दो घंटे दिए जाने पर दस दिनों में संस्कृत सीखने का भी आग्रह किया । उन्होंने हम से संस्कृत पढ़ने और अध्ययन करने का आग्रह किया क्योंकि हजारों साल पहले से ही संस्कृत दोनों देशों की संपत्ति है, जिसमें ज्योतिषशास्त्र भी शामिल है, जहां सूर्योदय, मास, पक्ष आदि की गणना की गई है ।
समारोह के मुख्य अतिथि एवं ऊर्जा, जलस्रोत तथा सिंचाई मंत्री माननीय शक्ति बहादुर बस्नेत जी ने सम्मेलन की पूर्ण सफलता की कामना करते हुए कहा कि संस्कृत भाषा एवं संस्कृति नेपाल एवं भारत के सांस्कृतिक संबंधों को जोड़ने का एक सशक्त माध्यम है। वहीं प्राचीन संस्कृति और संस्कृत में निहित ज्ञान–विज्ञान को आधुनिक जीवन शैली से जोड़ने की आवश्यकता पर विचार करना आज आवश्यक है ।
उद्घाटन समारोह के सभापति डा. केशवराज पंथी (नीति अनुसन्धान प्रतिष्ठान, नेपाल के कार्यकारी निदेशक) ने सम्मेलन की समापन करते हुए कहा की कि १६ भारतीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों और नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपतियों की उपस्थिति और ३० से अधिक संस्थानों के प्रतिनिधियों की भागीदारी ने इस संस्कृत सम्मेलन को भव्य बनाया है । उद्घाटन समारोह का कार्यक्रम संस्कृत भाषा में सम्मेलन के संयोजक डॉ. प्रेमराज न्यौपाने ने सञ्चालन किया ।
इस प्रकार, नेपाल–भारत संस्कृत सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में नेपाल और भारत के समाज के विभिन्न क्षेत्रों से प्रतिष्ठित व्यक्तियों की उपस्थिति संख्या लगभग ५०० थी । उद्घाटन समारोह का कार्यक्रम शाम छह बजे से आठ बजे तक आयोजित किया गया था, साथ ही कार्यक्रम से पहले शाम ४ बजे से स्वागत चाय से सभी का स्वागत किया गया और कार्यक्रम खत्म होने के बाद शाम ७ बजे से सभी के लिए रात्रि भोज की व्यवस्था की गई थी ।
अन्तर्राष्ट्रिय संस्कृत सम्मेलन – द्वितीय दिवस
नेपाल–भारत अन्तर्राष्ट्रिय संस्कृत सम्मेलन के दूसरे दिन परिचर्चा सत्र आयोजित किये गये । चर्चा सत्रों में विभिन्न विद्वानों के अवधारणा पत्र प्रस्तुत किये गये । जिनका संक्षेप में यहां अलग से उल्लेख किया गया है ।
प्रथम सत्र
प्रथम सत्र के अध्यक्षता प्रो. काशीनाथ न्यौपाने ने किया और वक्ताओं में डॉ. दिनेश कामत, प्रो. विजय कुमार सी. जी., डॉ. माधव प्रसाद लामिछाने, प्रो. दिनेश शास्त्री एवं डा. उत्तम पौडेल थे । इस सत्र की शुरुआत प्रो. काशीनाथ न्यौपाने के स्वागत भाषण से हुई और उन्होंने कार्यक्रम की अध्यक्षता किया ।
- प्रथम वक्ता प्रो. विजयकुमार सी. जी. ने अपने भाषण के दौरान संस्कृत के प्रचार और संरक्षण के लिए कहा कि निम्नलिखित ३ पहलू आवश्यक हैं – क. भाषा शिक्षण (भाषा शिक्षण के लिए आवश्यक प्रयास), ख. शास्त्रशिक्षण (गीता, भागवत आदि शास्त्र शिक्षणार्थ प्रयास आवश्यक), ग. जीवनशिक्षण (जीवनोपयोगी संस्कृत को ज्ञान शिक्षण आवश्यक)।
- श्री दिनेश कामत (मुख्य वक्ता) ने भी निम्नलिखित ३ सूत्र प्रस्तुत करते हुए कहा कि संस्कृत के विकास के लिए संस्कृत का क्यों समझना आवश्यक है –
- भाषिक दृष्टि से संस्कृत आवश्यक – चूँकि नेपाल भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की मातृभाषा संस्कृत है, इसलिए जो लोग नेपाली या हिंदी बोलना जानते हैं वे आसानी से संस्कृत बोल सकते हैं। तकनीकी युग के कारण संस्कृत में पारिभाषिक शब्दों का निर्माण आवश्यक है। आवश्यकता है कि केवल उन्हीं लोगों को संस्कृत पढ़ने की आदत से छुटकारा दिलाया जाए जिनकी अन्यत्र गति नहीं है और ऐसा वातावरण बनाया जाए कि हर कोई संस्कृत पढ़े। लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति को स्वीकार करने के कारण हमारा रहन–सहन, पहनावा, आचरण आदि खराब हो गये हैं । इसलिए जीवनशैली में सुधार के साथ–साथ भाषाई दृष्टि से भी संस्कृत पढ़ना जरूरी है ।
- भावैक्य निर्माण हेतु संस्कृत – नेपाली या भारतीय की भावना में एकता है । संस्कृत ने हमें सहिष्णु बनाया है । संस्कृत ही सभी में समादर की भावना विकसित करती है । संस्कृत सार्वभौमिक है । हम मुस्लिम, ईसाई और अन्य संप्रदायों का भी सम्मान करते हैं ।’ राष्ट्रीय भावना की एकता के लिए संस्कृत अपरिहार्य है । संस्कृत सबकी भाषा है, हृदय की भाषा है।
- जातिगत भेदभाव समाप्त करने के लिए संस्कृत – यह आरोप गलत है कि संस्कृत केवल ब्राह्मणों की भाषा है । क्या अगस्त्य जन्म से ब्राह्मण हैं ? कुम्भोद्भवः (टेस्ट्युव वेवी) और उसे किस प्रकार की जाति माना जाता है ? व्यास की माता सत्यवती का जन्म और पालन–पोषण मत्स्यगंधा के घर में हुआ था । इन सभी पौराणिक सन्दर्भों पर विचार करें तो संस्कृत किसी जाति विशेष की भाषा न होकर सभी जातियों की भाषा है ।
- प्रो लक्ष्मी निवास पांडेय संस्कृत के महत्त्व को दर्शाते हुए कहते हैं कि संस्कृत वस्तुतः संस्कृत सर्वहितकारी है। पश्चिम ने हमें बीमारी दी है, जबकि पूरब ने हमें योग दिया है। पहले संस्कृत भाषा संपूर्ण भारत की आम भाषा थी, संस्कृत देवताओं, पितरों और राक्षसों की भी भाषा है। इसलिए उन्होंने कहा कि अमर भाषा संस्कृत कभी भी मृत भाषा नहीं बन सकती और सबसे पहले संस्कृत को घर–घर पहुंचाने की जरूरत है, गृहिणियों को संस्कृत सिखाने की। वस्तुतः संस्कृत एक भाषा है, संस्कृत एक धर्म है, संस्कृत एक संस्कृति है और संस्कृत एक जीवन पद्धति है।
- डॉ. माधव प्रसाद लामिछाने ने नेपालशाक्तपरंपरायां भारतीयशाक्ताचार्यणामवदानञ्च शीर्षक से एक शोधपत्र प्रस्तुत किया। यह विचार सामने रखा गया कि नेपाल और भारत को नेपाल में मौजूद संस्कृत पांडुलिपियों के संपादन और प्रकाशन में सहयोग करना चाहिए, जिसमें नेपाल और भारत की शाक्त परंपराओं और आचार्य के योगदान पर प्रकाश डाला जाए।
द्वितीय सत्र
दूसरे चर्चासत्र का विषय वेदवेदांग परंपरा था। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. प्रफुल्ल कुमार मिश्र ने की, जबकि प्रो. आनंद प्रसाद घिमिरे, प्रो. ललित कुमार त्रिपाठी, प्रो. सत्यम कुमारी, प्रो. रानी सदाशिवमूर्ति, प्रो. गौरी माहुलीकर और प्रो. उपेन्द्र कुमार त्रिपाठी ने वेदवेदांग पर चर्चा प्रस्तुत की।
- सत्र के अध्यक्ष प्रो. प्रफुल्ल कुमार मिश्र ने वेदों की शिक्षा के लिए वेद पाठशालाओं की आवश्यकता जताई और कहा कि भारत के विभिन्न राज्यों और पड़ोसी देशों में भी वेद पाठशालाएं एवं गुरुकुल संचालित किये जाने चाहिए। यह भी विचार किया गया कि तपोभूमि नेपाल में गरुकुल वेदशाला खोलकर संस्कृत का विकास किया जाये।
- प्रो. रानी सदाशिव मूर्ति ने वेदों के निरंतर, गहन और गहन पाठ की आवश्यकता व्यक्त की और सुझाव दिया कि संस्कृत विश्वविद्यालय में पौरोहित्य कर्म की स्थापना की जानी चाहिए।
- प्रो. ललित कुमार त्रिपाठी का विचार था कि भारत को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है, राजनीतिक भारत और सांस्कृतिक भारत, राजनीति या भूगोल की दृष्टि से नेपाल और भारत अलग–अलग देश हैं, लेकिन सांस्कृतिक दृष्टि से नेपाल और भारत एक हैं। इसी तरह, उन्होंने पुष्टि की कि नेपाल एक बौद्धिक केंद्र एवं ज्ञान की भूमि है। नेपाल के धौलागिरि क्षेत्र में आर्य वाल्मिकी ऋषि द्वारा रामायण की रचना करने का प्रमाण पुराणों में मिलता है। रामायणं काव्यं मुनेः परमशोभनांच, उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि ऐसी ऋषिभूमि, तपोभूमि, शांतिभूमि नेपाल भी हाल के दिनों में राजनीतिक कारणों से प्रदूषित हो रही है।
- वेदवेदांग पर चर्चा करते हुए प्रो. सत्यम कुमारी ने कहा कि वेद हमारे सभी धर्मों की आत्मा है और वेदार्थ के निर्धारण के लिए वेदांग का अध्ययन आवश्यक है।
- प्रो. उपेन्द्र कुमार त्रिपाठी ने कहा कि नेपाल और भारत का शरीर अलग है लेकिन आत्मा एक है। आज भी भारत में काशी विद्या की नगरी के रूप में प्रतिष्ठित है, जैसे न्याय न मिले तो गोरखा चले जाते हैं और ज्ञान खो जाए तो काशी चले जाते हैं। आज भी धर्मसंकट में काशी के विद्वानों की राय निर्णायक बन रही है। काशीनाथ और पशुपतिनाथ की एकता ही नेपाल और भारत की एकता है। यह विचार कि एकीकरण का माध्यम वैदिक धर्म और संस्कृत या वैदिक साहित्य है।
- प्रो. आनंद प्रसाद घिमिरे ने पर्यावरण विज्ञान विषय पर वेदों में निहित विचारों को अपने शोधपत्र के माध्यम से प्रस्तुत किया। यह कहते हुए कि वेदों में पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ सोचा गया है, उन्होंने वेदों के पर्यावरणीय पहलुओं जैसे द्यौः शान्तिरन्तरिक्षशान्तिः, मधुववता…, विश्वनिदेव… आदि की चर्चा की।
- प्रो. गौरी माहुलीकर ने वेदों की चर्चा करते हुए कहा कि निरुक्त वेदों का महत्त्वपूर्ण अंग है। उन्होंने निरुक्त पर काम करने के लिए नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय और भारतीय विश्वविद्यालय के साथ सहयोग करने का प्रस्ताव रखा था। इसीलिए उन्होंने कहा कि नेपाल नाक की भूमि है, कम् सुखम्, नाकाम – अकाम = कष्ट, न अकम् इति नाकम्। ऐसा राष्ट्र नाक, नक्षदेशः सुखभूमि की व्युत्पत्ति प्रदर्शित करके नेपाल को मोक्ष भूमि के रूप में जाना जाता था।
- वेदवेदांग सत्र के अध्यक्ष प्रो. प्रफुल्ल कुमार मिश्र ने वेदांगमय के संरक्षण के लिए विद्वज्जन के प्रति आभार व्यक्त करते हुए वेदों के संरक्षण के लिए महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किये। इस प्रकार यह सत्र समाप्त हुआ।
तृतीय सत्र
तृतीय परिचर्चा सत्र का विषय राष्ट्रिय शिक्षा नीति को क्रियान्वयन एवं नेपाल पर इसका प्रभाव था। इस सत्र की सभाध्यक्षता श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. मुरली मनोहर पाठक जी की, तथा अन्य वक्ताओं के रूप में प्रो. लक्ष्मीनिवास पाण्डेय, कुलपति, कामेश्वरसिंह दरभङ्गा संस्कृत विश्वविद्यालय), प्रो. शिशिरकुमार पाण्डेय, कुलपति, जगद्गुरु रामभद्राचार्य दिव्याङ्ग राज्य विश्वविद्यालय, प्रो. सर्वनारायण झा (निर्देशक केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय), प्रो. भागवत ढकाल (प्राचार्य नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय, वाल्मीकि विद्यापीठ, डा. प्रकाश तिवारी, आचार्य, नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय एवं प्रो. वनमाली बिस्वाल, अधिष्ठाता, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय – सभी ने इस परिचर्चा समारोह सहभागिता की। इस सत्र का संयोजन एवं सञ्चालन प्रो. श्रीगोविन्द पाण्डेय, निर्देशक, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, गुरुवायूर परिसर, त्रिस्सूर, केरल ने किया।
- प्रो. सर्व नारायण झा ने कहा कि ऐसी व्यवस्था है कि जो छात्र उत्तीर्ण नहीं हुए हैं, वे केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय में विभिन्न विषयों की पढ़ाई कर सकते हैं। यह सोचा गया कि पश्चिमी शिक्षाप्रणाली को त्यागकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) को अपनाकर शिक्षा में सुधार किया जा सकता है और भारत को समृद्ध बनाया जा सकता है। यह कहते हुए कि विभिन्न पाठ्यक्रमों को एक विश्वविद्यालय में विकसित और भेजा जा सकता है। उन्होंने यह अवधारणा प्रस्तुत की कि समृद्ध नेपाल और खुशहाल नेपाली बनाने के लिए नेपाल को भूमि पर आधारित एक नई शिक्षा नीति भी विकसित करनी चाहिए।
- प्रो. भागवत ढकाल ने कहा कि लार्ड मेकाले द्वारा लागू की गई शिक्षा नीति ने नेपाल में एक अजीब स्थिति पैदा कर दी है, जिसे यतो यतः समीहसे, द्यौः शान्तिः जैसे वेदमंत्रों का पालन करके हम विश्व में शांति स्थापित कर सकते हैं। यह तर्क दिया गया कि देश एवं माटी, भूमि या समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से एक नई शिक्षा नीति बनाई जानी चाहिए, यह देखते हुए कि संस्कृत शिक्षा की कमी के कारण आज घर में समस्याएँ पैदा हो रही हैं। प्रत्येक कार्य के लिए विदेशी आर्थिक सहायता प्राप्त करने की अनिवार्यता के कारण नेपाल अपनी स्वतंत्र शैक्षिक नीति एवं पाठ्यक्रम नहीं बना सका है, इस तथ्य को प्रस्तुत करते हुए संस्कृत के सुधार से राष्ट्र समृद्ध होगा, इस विश्वास के साथ समाज अनुशासित बनेगा केवल मातृ देवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव, आचार्य देवो भव, और स्वाध्यायप्रवचनाभ्यम् जैसे दीक्षा मंत्रों का पालन करके सोचा था।
- डॉ. प्रकाश तिवारी ने नेपालभारतयोरात्मीयसम्बन्धस्य मूलं संस्कृतम् शीर्षक से शोधपत्र प्रस्तुत किया। प्रके दौरान उनका मानना था कि नेपाल और भारत की ज्ञान परंपराएं अविभाज्य हैं और उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि शास्त्र परंपरा के विकास के लिए कई गुरुकुल, आश्रम और विश्वविद्यालयों की स्थापना और संचालन किया जाना चाहिए।
- सत्र के अध्यक्ष प्रो. मुरलीमनोहर पाठक ने बताया कि भारत पर पश्चिम का नियंत्रण होने के कारण भारत में पश्चिमी शिक्षा नीति लागू करनी पड़ी, जिसके कारण भारत में प्राचीन गुरुकुल ध्वस्त हो गये। तीसरे सत्र का चर्चा सत्र इस सुझाव के साथ संपन्न हुआ कि नेपाल को भी अपनी क्षेत्रीय शिक्षा नीति विकसित और लागू करनी चाहिए, जिसमें कहा गया कि भारत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति और भारतीय शिक्षा नीति के लागू होने के बाद उत्साह में स्पष्ट वृद्धि हुई है।
चतुर्थ सत्र
दूसरे दिन की चर्चा के चौथे सत्र में भारत और नेपाल में विज्ञान अध्ययन की दशा और दिशा पर चर्चा की गयी. वाल्मिकी विश्वविद्यालय के समारोह का संचालन प्रो. शांतिकृष्ण अधिकारी ने किया। समारोह की अध्यक्षता भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद के सचिव प्रो. सचिदानंद मिश्र ने किया, जबकि वक्ताओं में कविकुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. हरेराम त्रिपाठी, सोमनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सुकांत कुमार सेनापति, जगद्गुरु रामभद्राचार्य राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रामसेवक दुबे, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल परिसर के निदेशक प्रो. रमाकान्त पांडेय, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रो. ब्रजभूषण ओझा एवं डा. रघुनाथ अधिकारी रहे। इस बैठक में सभी विद्वान वक्ताओं ने नेपाल और भारत में विज्ञान अध्ययन की दिशा और दशा पर गहन विचार प्रस्तुत किये।
- प्रो. सुकांत कुमार सेनापति ने शास्त्रों के अध्ययन की स्थिति और दिशा के बारे में बोलते हुए कहा कि शास्त्र दो प्रकार के होते हैंः भौतिकवादी और आत्म–दार्शनिक। धर्मग्रंथों की रक्षा कैसे करें? प्रश्न के संबंध में उन्होंने कहा कि शास्त्रों की रक्षा स्वाध्याय, प्रवचन, प्रशिक्षण और शोध से ही की जा सकती है, साथ ही शास्त्रों की रक्षा के लिए परिश्रम, त्याग, धैर्य और सकारात्मक सोच जरूरी है।
- प्रो. हरेराम त्रिपाठी ने नेपाल एवं भारत में शास्त्रों के अध्ययन की दशा एवं दिशा पर चर्चा करते हुए कहा कि शास्त्रों की प्रवृत्त त्रिधा – क. प्रयोजन, ख. लक्षण, ग. परीक्षण है। राष्ट्र निर्माण के छह प्रकल्प प्रस्तुत किये – क. मंदिर, ख. अध्ययन, ग. सेवा, घ. उत्सव, ङ. सद्भाव एवं च. कौशल विकास शामिल हैं। इसी तरह उन्होंने कहा कि नेपाल और भारत में ज्ञानपरंपराओं में समानता है और एक व्यापक आधुनिक संस्कृत विश्वविद्यालय चलाया जाना चाहिए, इसकी अवधारणा और प्रस्ताव प्रस्तुत किया। नेपाल और भारत के बीच समन्वय जो विदेशी छात्रों को भी आकर्षित करेगा।
- सत्र के अंत में प्रो. शांतिकृष्ण अधिकारी ने नेपाल में संस्कृत अध्ययन की स्थिति के बारे में एक तथ्यात्मक पेपर भी प्रस्तुत किया और अध्यक्ष प्रो. सच्चिदानंद मिश्र ने चर्चा में भाग लेने वाले सभी वक्ताओं और दर्शकों को धन्यवाद ज्ञापन के साथ बैठक का समापन किया।
नेपाल–भारत अन्तर्राष्ट्रिय संस्कृत सम्मेलन – तृतीय दिवस
मिति २०८० चैत्र १६ गते तदनुसार मार्च २९, २०२४ शुक्रवार दिन, चतुर्थ सत्र अन्तर्गत बहुशास्त्रीय संस्कृताध्यययन विषय में विद्वद्गोष्ठी सम्पन्न हुई। नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय का पूर्वकुलपति प्रो. पूर्णचन्द्र ढुङ्गेल को सभाध्यक्षता में सम्पन्न उक्त समारोह में श्री श्री विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बी. आर. शर्मा, गुरुकुल काङ्गडी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सोमदेव शतांशु, चिन्मय इन्टरनेशनल फाउण्डेसन की प्रो. गौरी माहुलीकर, नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रो. लालमणि पाण्डेय ने संस्कृत अध्ययन के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण विचार रखे। इस समारोह का सञ्चालन त्रिभुवन विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. माधवप्रसाद उपाध्याय ने किया।
समारोह में अध्यक्ष प्रो. पूर्णचन्द्र ढुंगेल ने आयोजकों के प्रति धन्यवाद एवं आभार व्यक्त करते हुए कहा कि नेपाल भारत संस्कृत सम्मेलन बहुत ही सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ और विचार व्यक्त करते हुए चर्चा का समापन किया कि जो लोग संस्कृत नहीं पढ़ते वे जीवन के अर्थ से वंचित हैं तथा जो संस्कृत पढ़ते हैं उनका जीवन सार्थक होता है।
सम्मेलन का समापन
चर्चासत्र के बाद दिन में समापन समारोह आयोजित किया गया। केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति अध्यक्ष प्रो. श्रीनिवास वरखेड़ी थे और दो दिन का सम्मान ऋषिकल्प गुरु आचार्य प्रो. पूर्णचंद्र ढुंगेल को समर्पित था, जो तीनों दिन उपस्थित रहे और बैठक की शोभा बढ़ाई। समापन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में इंडिया फाउंडेशन के अध्यक्ष डा. राम माधव उपस्थित रहे। नीति अनुसंधान संस्थान, नेपाल (नेनाप) के निदेशक डॉ. दीपक कुमार अधिकारी, संस्कृत सम्मेलन के संयोजक डा. प्रेमराज न्यौपाने एवं भारत समन्वयक डा. नितिन कुमार जैन ने सम्मेलन के अंत में अपने विचार रखे और सभी को धन्यवाद ज्ञापन किया ।
तीन दिनों में समाहित किए गए समग्र विषयों का सारसंग्रह डॉ. प्रेमराज न्यूपाने द्वारा प्रस्तुत किया गया। डॉ. दीपक कुमार अधिकारी ने सम्मेलन का आयोजन क्यों किया गया इस पर अपनी राय प्रस्तुत करते हुए कहा कि हमें समाज के उस बड़े वर्ग तक पहुंचने के लिए काम करना चाहिए जो संस्कृत में रुचि रखते हैं लेकिन उन्होंने संस्कृत का अध्ययन नहीं किया है।
केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति आयोजकों की ओर से प्रो. श्रीनिवास बरखेड़ी ने इस बात पर गहन विचार व्यक्त किये कि हम भविष्य में भी सभी की भागीदारी से संस्कृत गतिविधियों का नेतृत्व करें तथा सभी समर्थकों को धन्यवाद दिया। डॉ. नितिन कुमार जैन ने सभी का आभार व्यक्त किया। इसी प्रकार सभी प्रतिभागियों का ग्रूप फोटो खींचकर एवं संस्कृत सम्मेलन का स्मृति चिन्ह देकर संस्कृत सम्मेलन का विधिवत समापन किया गया।
संकल्पपत्र
नेपाल और भारत की प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान विदुषी और विभिन्न संस्कृत विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति, उपकुलपति, प्रोफेसरों के साथ संस्कृत पर चर्चाएँ बहुत भव्य, सभ्य और सफल रहीं। संस्कृत सम्मेलन ने संस्कृत भाषा और संस्कृत में निहित ज्ञानमीमांसा के प्रचार, अध्ययन, अनुसंधान और उत्खनन के कार्य में निम्नलिखित संकल्प जारी किया। अंतर्राष्ट्रीय नेपाल–भारत–संस्कृत सम्मेलन का संकल्प पत्र–
- नेपाल में संस्कृत शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए प्रयास करने हेतु नेपाल में नीति अनुसंधान संस्थान के माध्यम से नेपाल में संस्कृत पांडुलिपियों का अध्ययन, संपादन और प्रकाशन करना।
- नेपाल की ज्ञान प्रणाली पर आधारित अर्थव्यवस्था और शिक्षा प्रणाली के लिए समर्थन और आयुर्वेद प्राकृतिक चिकित्सा आदि के अध्ययन में सहयोग।
- नेपाल के गुरुकुलों और शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ने वाले छात्रों के व्यावसायिक विकास के लिए और भारत में शैक्षिक गुणवत्ता को बढ़ावा देने के लिए, नेपाल में गुरुकुलों और अन्य संस्कृत संस्थानों के पुस्तकालयों को सहायता प्रदान करना।
- प्रत्येक वर्ष क्रमशः नेपाल और भारत में अंतर्राष्ट्रीय संस्कृत सम्मेलन आयोजित करना।
- महर्षि सांदीपनि राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन, मध्य प्रदेश, भारत द्वारा नेपाल में गुरुकुलों के विकास हेतु सहायता प्रदान करना।
धन्यवाद ज्ञापन
नेपाल में नेपाल भारत संस्कृत सम्मेलन के आयोजन में नीति अनुसंधान प्रतिष्ठान, नेपाल (नेनाप) के निदेशक डा. दीपक कुमार अधिकारी की सक्रियता के कारण सम्मेलन आसानी से संपन्न हुआ। इसी तरह, नीति अनुसंधान प्रतिष्ठान, नेपाल (नेनाप) के निदेशक कार्यालय के कार्यकारी निदेशक डा. केशवराज पंथी की सक्रियता के कारण सम्मेलन में सभी कार्य निर्धारित समय पर पूर्ण करने में आसानी हुई। अतः नीति अनुसंधान प्रतिष्ठान नेपाल की पूरी टीम का हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं।
केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली के कुलपति प्रो. श्रीनिवास वरखेड़ी जी की भूमिका एवं संकल्प सराहनीय है। कार्यक्रम समन्वयक का दायित्व निभाने हेतु केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के डा. नितिन कुमार जैन ने बहुत मदद की है। भारत से आने वाले सभी महत्त्वपूर्ण लोगों से सम्पर्क एवं व्यवस्था में डा. नितिन कुमार जी की प्रमुख भूमिका रही। धर्मराज जी और सम्मेलन स्थल पार्क विलेज रिसॉर्ट के पूरे स्टाफ के योगदान को भी यहां याद करना आवश्यक है। उद्घाटन के अवसर पर समाज के विभिन्न स्तरों के गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति से हमें सम्मानित किया गया। इसी प्रकार मैं इंडिया फाउंडेशन, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के सभी शुभचिन्तकों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं।
प्रबंधकीय पहलू से जुड़े वित्तीय पहलू की व्यवस्था में मदद करने वाला समाज का प्रत्येक व्यक्ति एवं संगठन धन्यवाद का पात्र है।
डॉ. प्रेमराज न्यौपाने
कार्यक्रम संयोजक
नेपाल–भारत अन्तर्राष्ट्रिय संस्कृत सम्मेलन